Tuesday 3 November 2015

Hindi Story, शिक्षाप्रद कहानी : सच्ची सेवक..., बाल कहानी : 15 अगस्त की मिठाई, बोधकथा : वाह रे शिष्य!, बाल साहित्य : बेवकूफ गधे की फनी कहानी, चटपटी बाल कहानी : मीठूराम की परेशानी,शिक्षाप्रद बाल कहानी : झूठी शान न दिखाओ..., मजेदार बाल कहानी : दसवां प्रयास..., कहानी : मेरी छात्रा, शिक्षाप्रद कहानी : विकलांग, शिक्षाप्रद कहानी : एक चमत्कार


            शिक्षाप्रद कहानी : सच्ची सेवक...




मदर टेरेसा एक थीं। एक बार मदर टेरेसा कुष्ठ रोग से पीड़ित रोगियों के इलाज के लिए कोलकाता में दुकान-दुकान जाकर चंदा एकत्र कर रही थीं।

इसी सिलसिले में मदर एक अमीर व्यापारी की दुकान पर पहुंची, जो अपनी दुकान पर बैठे-बैठे पान चबा रहा था। 


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जब मदर ने उस व्यापारी के आगे अपना सीधा हाथ फैलाकर कहा कि कुष्ठ रोग से पीड़ित भाइयों के लिए कुछ देने की कृपा करें, तब उस व्यापारी ने मदर के सीधे हाथ पर पान की पीक थूक दी। 
इस पर मदर टेरसा बिल्कुल भी विचलित नहीं हुईं और उन्होंने तुरंत अपना सीधा हाथ पीछे करते हुए कहा, 'यह तो मेरे लिए हो गया' और फिर अपना बायां हाथ आगे फैलाते हुए अत्यंत प्यार से बोली,' अब कृपा कर मेरे कुष्ठ रोगी भाइयों के लिए कुछ देने का कष्ट करें।'
उस व्यापारी ने सोचा भी नहीं था कि किसी के हाथ पर थूकने के बाद भी वह बिल्कुल विचलित और क्रोधित नहीं होगा और उल्टा अपना प्यार प्रदर्शित करेगा। वह तुरंत मदर के चरणों में गिर पड़ा। अपने किए की माफी मांगी और उसके बाद मदर टेरेसा की मदद भी की।

सीख : हमें किसी भी परिस्थितियों में हार नहीं माननी चाहिए तथा हमेशा दूसरों के प्रति सेवाभाव रखना चाहिए। 


           बाल कहानी : 15 अगस्त की मिठाई

कक्षा दूसरी में पढ़ने वाला रोनिन 15 अगस्त के विषय में अपने भाई अभिजात्य से पूछता है। अभिजात्य कक्षा तीसरी में पढ़ता है और अपनी समझ के अनुरूप रोनिन को 15 अगस्त के विषय में बताता है। 


रोनिन अपने भाई अभिजात्य से : भईया क्या हम कल स्कूल आएंगे?  
अभिजात्य : हां, कल मिठाई मिलेगी। 
रोनिन : क्यों?
अभिजात्य : कल 15 अगस्त है ना इसलिए। 
रोनिन : क्या कल कोई त्योहार है?
अभिजात्य : हां 15 अगस्त है, तभी तो मिठाई मिलेगी। 
रोनिन : यह हिंदुओं का त्योहार है या किसी और धर्म का। 
अभिजात्य : इस त्योहार को सभी धर्म के लोग एक साथ मनाते हैं। हम अपने घर जाकर इसके बारे पूछेंगे। 
रोनिन और अभिजात्य अपने घर पहुंचते हैं जहां वे अपनी मम्मी को 15 अगस्त पर मिलने वाली मिठाई की वजह पूछते हैं। उनके सवाल पर मम्मी मुस्कुराती हैं और उन्हें कहती हैं कि अन्य किसी भी त्योहार पर मिलने वाली मिठाई से बहुत ज्यादा कीमती यह मिठाई है। बच्चे उत्सुकता से उन्हें देखते हैं और आगे जानने के लिए जम जाते हैं। 
मम्मी: बेटा तुम मुझे और अपने पापा को सबसे ज्यादा खास रिश्ता समझते हो ना, ऐसे ही हमारा एक और बहुत बड़ा रिश्ता हमारे देश के साथ होता है। देश के साथ हमारी पहचान, अस्तित्व और सुरक्षा जुड़ी होती है। हम लोग भारत देश के नागरिक हैं और इसी वजह से हमारे लिए 15 अगस्त अन्य किसी भी त्योहार से बढ़कर होता है। 
अभिजात्य : मम्मी देश का त्योहार 15 अगस्त को ही क्यों मनाते हैं किसी और दिन क्यों नहीं? 
मम्मी : बहुत अच्छा सवाल पूछा तुमने अभि। हमारा देश सैकडों साल पहले बहुत अमीर देश था। सारी दुनिया में हमारे देश की पहचान एक धनी राष्ट्र के रूप में थी। सारी दुनिया के लोग हमारे साथ व्यापार करना चाहते थे। ऐसे ही एक कंपनी ने इंग्लैंड से आकर हमारे साथ व्यापार शुरू किया और धीरे-धीरे धोखा देते हुए हमारे देश पर कब्जा कर लिया। 
रोनिन : फिर क्या हुआ मम्मी? 
मम्मी : उसके बाद हमारे देश में उन विदेशियों को हमारी धरती से दूर करने की जंग शुरू हुई जो बहुत साल तक चली। इन लड़ाई में कई महान लोगों ने अपनी कुर्बानी दी और आखिरकार 15 अगस्त 1947 को उन विदेशियों को वापस जाना ही पड़ा। 
रोनिन : (उत्साह में) और इसलिए हम 15 अगस्त को मिठाई खाते हैं।
मम्मी: हां रॉनी, परंतु यह मिठाई बहुत गहरा मतलब अपने में छुपाए हुए है और लाखों लोगों की कुर्बानी और अथक प्रयासों का नतीजा है। 
रोनिन और अभिजात्य (एक साथ) : झंडा उंचा रहे हमारा....


                बोधकथा : वाह रे शिष्य!

- राजा चौरसिया

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गांव से बहुत दूर एक जंगल में एक गुरुजी रहते थे। वहां उनका एक बड़ा आश्रम था, जहां रहकर अनेक शिष्य विद्याध्ययन करते थे। गुरुजी की वाणी से सभी वेद, शास्त्रों का श्रवण कर ग्रहण भी करते थे। आश्रम में कई दुधारू गायें थीं। 
जब अध्ययन की अवधि समाप्त हो गई तो गुरुजी ने एक दिन सबको अपने सामने एकसाथ बैठाकर दीक्षा व आशीर्वाद देते हुए कहा- तुम सब मेरे प्रिय और आत्मीय हो। मैं चाहता हूं कि मेरी ओर से भेंटस्वरूप एक-एक गाय अपने-अपने घर ले जाओ। शिष्य के रूप में तुमने जो सेवाभाव दिखाया है, उससे मैं बहुत प्रसन्न हूं। 
यह ‍सुनकर शिष्य गदगद हो गए। वे शीघ्र ही अपनी पसंद की गाय चुन-चुनकर रस्सी हाथ में थामे हुए जब वहां से प्रस्थान करने को उत्सुक हुए तो गुरुजी की दृष्टि एक भोले-भाले शिष्य पर पड़ी, जो यह सब चुपचाप देख रहा था।
उसको पास बुलाकर गुरुजी ने पूछा- बेटा! तुम क्यों शांत खड़े हो? क्या तुम्हें गाय नहीं चाहिए?
नहीं गुरुजी, वह हाथ जोड़कर विनयपूर्वक बोला- मुझे यहां की कोई गाय नहीं चाहिए। मुझे केवल आशीर्वाद चाहिए, जो आपने देकर मेरा उपकार किया है।
शिष्य की कृतज्ञताभरी वाणी सुनते ही गुरुजी भाव-विभोर हो गए। उन्होंने इस शिष्य के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा- अब आश्रम की शेष सारी गायें मैं तुम्हें प्रदान करता हूं। 
मैं आप जैसे गुरु और आश्रम को छोड़कर कहीं भी नहीं जाऊंगा, यहीं आपकी सेवा करूंगा। 
ऐसा कहकर शिष्य ने ज्यों ही अपना मस्तक गुरुजी के चरणों में रखना चाहा, ज्यों‍ ही उन्होंने लपककर शिष्य को अपनी छाती से लगा लिया। उस समय सभी शिष्य एक-दूसरे का मुंह देख रहे थे।

साभार - देवपुत्र 

          बाल साहित्य : बेवकूफ गधे की फनी कहानी

पुराने समय की बात है। एक जंगल में एक रहता था। गीदड़ उसका सेवक था। जोड़ी अच्छी थी। शेरों के समाज में तो उस शेर की कोई इज्जत नहीं थी, क्योंकि वह जवानी में सभी दूसरे शेरों से युद्ध हार चुका था, इसलिए वह अलग-थलग रहता था। उसे गीदड़ जैसे चमचे की सख्त जरूरत थी, जो चौबीस घंटे उसकी चमचागिरी करता रहे। गीदड़ को बस खाने का जुगाड़ चाहिए था। पेट भर जाने पर गीदड़ उस शेर की वीरता के ऐसे गुण गाता कि शेर का सीना फूलकर दुगना चौड़ा हो जाता।


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एक दिन शेर ने एक बिगड़ैल जंगली सांड का शिकार करने का साहस कर डाला। सांड बहुत शक्तिशाली था। उसने लात मारकर शेर को दूर फेंक दिया, जब वह उठने को हुआ तो सांड ने फां-फां करते हुए शेर को सीगों से एक पेड के साथ रगड़ दिया।
किसी तरह शेर जान बचाकर भागा। शेर सींगों की मार से काफी जख्मी हो गया था। कई दिन बीते, लेकिन शेर के जख्म ठीक होने का नाम नहीं ले रहे थे। ऐसी हालत में वह शिकार नहीं कर सकता था। स्वयं शिकार करना गीदड़ के बस का नहीं था। दोनों के भूखों मरने की नौबत आ गई। शेर को यह भी भय था कि खाने का जुगाड़ समाप्त होने के कारण गीदड़ उसका साथ न छोड़ जाए।
शेर ने एक दिन उसे सुझाया 'देख, जख्मों के कारण मैं दौड़ नहीं सकता। शिकार कैसे करूं? तू जाकर किसी बेवकूफ-से जानवर को बातों में फंसाकर यहां ला। मैं उस झाड़ी में छिपा रहूंगा।'
गीदड़ को भी शेर की बात जंच गई। वह किसी मूर्ख जानवर की तलाश में घूमता-घूमता एक कस्बे के बाहर नदी-घाट पर पहुंचा। वहां उसे एक मरियल-सा गधा घास पर मुंह मारता नजर आया। वह शक्ल से ही बेवकूफ लग रहा था।
गीदड़ गधे के निकट जाकर बोला 'पायं लागूं चाचा। बहुत कमजोर हो गए हो, क्या बात हैं?'
गधे ने अपना दुखड़ा रोया 'क्या बताऊं भाई, जिस धोबी का मैं गधा हूं, वह बहुत क्रूर हैं। दिन भर ढुलाई करवाता हैं और चारा कुछ देता नहीं।' 
गीदड़ ने उसे न्यौता दिया 'चाचा, मेरे साथ जंगल चलो न, वहां बहुत हरी-हरी घास हैं। खूब चरना तुम्हारी सेहत बन जाएगी।' 

गधे ने कान फड़फड़ाए 'राम राम। मैं जंगल में कैसे रहूंगा? जंगली जानवर मुझे खा जाएंगे।' 
'चाचा, तुम्हें शायद पता नहीं कि जंगल में एक बगुला भगतजी का सत्संग हुआ था। उसके बाद सारे जानवर शाकाहारी बन गए हैं। अब कोई किसी को नहीं खाता।' गीदड़ बोला और कान के पास मुंह ले जाकर दाना फेंका 'चाचू, पास के कस्बे से बेचारी गधी भी अपने धोबी मालिक के अत्याचारों से तंग आकर जंगल में आ गई थी। वहां हरी-हरी घास खाकर वह खूब लहरा गई हैं, तुम उसके साथ घर बसा लेना।' 
गधे के दिमाग पर हरी-हरी घास और घर बसाने के सुनहरे सपने छाने लगे। वह गीदड़ के साथ जंगल की ओर चल दिया। जंगल में गीदड़ गधे को उसी झाड़ी के पास ले गया, जिसमें शेर छिपा बैठा था। इससे पहले कि शेर पंजा मारता, गधे को झाड़ी में शेर की नीली बत्तियों की तरह चमकती आंखें नजर आ गईं। वह डरकर उछला, गधा भागा और भागता ही गया। शेर बुझे स्वर में गीदड़ से बोला 'भई, इस बार मैं तैयार नहीं था। तुम उसे दोबारा लाओ इस बार गलती नहीं होगी।' 
गीदड़ दोबारा उस गधे की तलाश में कस्बे में पहुंचा। उसे देखते ही बोला 'चाचा, तुमने तो मेरी नाक कटवा दी। तुम अपनी दुल्हन से डरकर भाग गए?' 
'उस झाड़ी में मुझे दो चमकती आंखें दिखाई दी थी, जैसे शेर की होती हैं। मैं भागता न तो क्या करता?' गधे ने शिकायत की।
गीदड़ नकली माथा पीटकर बोला 'चाचा ओ चाचा! तुम भी नीरे मूर्ख हो। उस झाड़ी में तुम्हारी दुल्हन थी। जाने कितने जन्मों से वह तुम्हारी राह देख रही थी। तुम्हें देखकर उसकी आंखें चमक उठी तो तुमने उसे शेर समझ लिया?' 
गधा बहुत लज्जित हुआ, गीदड़ की चाल-भरी बातें ही ऐसी थी। गधा फिर उसके साथ चल पड़ा। जंगल में झाड़ी के पास पहुंचते ही शेर ने नुकीले पंजों से उसे मार गिराया। इस प्रकार शेर व गीदड़ का भोजन जुटा।
सीखः दूसरों की बातों में आने की मूर्खता कभी नहीं करनी चाहिए।



         चटपटी बाल कहानी : मीठूराम की परेशानी


जानिए रात को क्यों गाने लगा मीठू तोता  


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एक तोता था मीठूराम। पिंजरा ही का घर था और वही उसकी दुनिया। मीठूराम की आवाज बड़ी अच्छी थी पर वह सिर्फ रात को ही गाता था। 
एक रात जब मीठूराम गाना गा रहा था तो उधर से एक चमगादड़ निकला। चमगादड़ ने देखा कि मीठूराम की आवाज बहुत ही मीठी है तो उसने पूछा कि क्यों भई तुम्हारी आवाज इतनी मीठी है तो तुम सिर्फ रात को ही क्यों गाते हो? 
मीठूराम ने इसकी वजह बताते हुए कहा कि एक बार जब मैं जंगल में दिन के समय गाना गा रहा था तो एक शिकारी उधर से निकला। उसने मेरी आवाज सुनी और उसी कारण उसने मुझे पकड़ लिया। तबसे अभी तक मैं इस पिंजरे में कैद हूं। 
यह बताकर मीठूराम बोला कि इसके बाद से मैंने यह सीख लिया कि दिन में गाना मुसीबत का कारण बन सकता है और इसलिए अब मैं रात को ही गाता हूं। यह सुनकर चमगादड़ बोला कि मित्र यह तो तुम्हें पकड़े जाने से पहले सोचना चाहिए था। 
सच भी है कि कई बार हम गलतियां करने के बाद ही उससे कुछ न कुछ सीखते हैं। पर जरूरी नहीं है कि हर बार सीखने के लिए गलती ही की जाए। 
कई मर्तबा किसी काम को करने से पहले कुछ सावधानियां बरत कर हम गलतियों से बच सकते हैं और नुकसान से भी। तो याद रखिए बुद्धिमान वही होता है जो सोच-विचारकर काम करता है। 

        शिक्षाप्रद बाल कहानी : झूठी शान न दिखाओ...

उल्लू की ने ली परम मित्र की 'जान' 
    

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एक जंगल में पहाड़ की चोटी पर एक किला बना था। किले के एक कोने के साथ बाहर की ओर एक ऊंचा विशाल देवदार का पेड़ था। किले में उस राज्य की सेना की एक टुकड़ी तैनात थी। देवदार के पेड़ पर एक उल्लू रहता था। वह भोजन की तलाश में नीचे घाटी में फैले ढलवां चरागाहों में आता। 
चरागाहों की लंबी घासों व झाड़‍ियों में कई छोटे-मोटे जीव व कीट-पतंगे मिलते, जिन्हें उल्लू भोजन बनाता। निकट ही एक बडी़ झील थी, जिसमें हंसों का निवास था। उल्लू पेड़ पर बैठा झील को निहारा करता। उसे हंसों का तैरना व उडना मंत्रमुग्ध करता। 
वह सोचा करता कि कितना शानदार पक्षी हैं हंस। एकदम दूध-सा सफेद, गुलगुला शरीर, सुराहीदार गर्दन, सुंदर मुख व तेजस्वी आंखें। उसकी बड़ी इच्छा होती किसी हंस से उसकी दोस्ती हो जाए।
एक दिन उल्लू पानी पीने के बहाने झील के किनारे उगी एक झाड़ी पर उतरा। निकट ही एक बहुत शालीन व सौम्य हंस पानी में तैर रहा था। हंस तैरता हुआ झाड़ी के निकट आया।
उल्लू ने बात करने का बहाना ढूंढा- हंस जी, आपकी आज्ञा हो तो पानी पी लूं। बडी़ प्यास लगी है।
हंस ने चौंककर उसे देखा और बोला- मित्र! पानी प्रकृति द्वारा सबको दिया गया वरदान हैं। इस पर किसी एक का अधिकार नहीं।
उल्लू ने पानी पीया। फिर सिर हिलाया जैसे उसे निराशा हुई हो। 
हंस ने पूछा- मित्र! असंतुष्ट नजर आते हो। क्या प्यास नहीं बुझी?

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उल्लू ने कहा- हे हंस! पानी की प्यास तो बुझ गई पर आपकी बातों से मुझे ऐसा लगा कि आप नीति व ज्ञान के सागर हैं। मुझमें उसकी प्यास जग गई हैं। वह कैसे बुझेगी?
हंस मुस्कुराया- मित्र, आप कभी भी यहां आ सकते हैं। हम बातें करेंगे। इस प्रकार मैं जो जानता हूं, वह आपका हो जाएगा और मैं भी आपसे कुछ सीखूं लूंगा।
इसके पश्चात हंस व उल्लू रोज मिलने लगे। एक दिन हंस ने उल्लू को बता दिया कि वह वास्तव में हंसों का राजा हंसराज हैं। अपना असली परिचय देने के बाद हंस अपने मित्र को अपने घर ले गया। शाही ठाठ थे। खाने के लिए कमल व नरगिस के फूलों के व्यंजन परोसे गए और न जानें क्या-क्या दुर्लभ खाद्य थे, उल्लू को पता ही नहीं लगा। बाद में सौंफ-इलाइची की जगह मोती पेश किए गए। उल्लू दंग रह गया।
अब हंसराज उल्लू को महल में ले जाकर खिलाने-पिलाने लगा। रोज दावत उड़ती। उसे डर लगने लगा कि किसी दिन साधारण उल्लू समझकर हंसराज दोस्ती न तोड़ ले।
इसलिए स्वयं को हंसराज की बराबरी का बनाए रखने के लिए उसने झूठमूठ कह दिया कि वह भी उल्लूओं का राजा उलकराज हैं। झूठ कहने के बाद उल्लू को लगा कि उसका भी फर्ज बनता हैं कि हंसराज को अपने घर बुलाए।
एक दिन उल्लू ने दुर्ग के भीतर होने वाली गतिविधियों को गौर से देखा और उसके दिमाग में एक युक्ति आई। उसने दुर्ग की बातों को खूब ध्यान से समझा। सैनिकों के कार्यक्रम नोट किए। फिर वह चला हंस के पास। जब वह झील पर पहुंचा, तब हंसराज कुछ हंसनियों के साथ जल में तैर रहा था। उल्लू को देखते ही हंस बोला- मित्र, आप इस समय?
उल्लू ने उत्तर दिया- हां मित्र! मैं आपको आज अपना घर दिखाने अपना मेहमान बनाने के लिए ले जाने आया हूं। मैं कई बार आपका मेहमान बना हूं। मुझे भी सेवा का मौका दें।
हंस ने टालना चाहा- मित्र, इतनी जल्दी क्या हैं? फिर कभी चलेंगे।
उल्लू ने कहा- आज तो मैं आपको लिए बिना नहीं जाऊंगा।
हंसराज को उल्लू के साथ जाना ही पड़ा।
पहाड़ की चोटी पर बने किले की ओर इशारा कर उल्लू उड़ते-उड़ते बोला- वह मेरा किला है। 
हंस बडा प्रभावित हुआ। वे दोनों जब उल्लू के आवास वाले पेड़ पर उतरे तो किले के सैनिकों की परेड शुरू होने वाली थी। दो सैनिक बुर्ज पर बिगुल बजाने लगे। उल्लू दुर्ग के सैनिकों के कार्यक्रम को याद कर चुका था इसलिए ठीक समय पर हंसराज को ले आया था। 
उल्लू बोला- देखो मित्र, आपके स्वागत में मेरे सैनिक बिगुल बजा रहे हैं। उसके बाद मेरी सेना परेड और सलामी देकर आपको सम्मानित करेगी।
नित्य की तरह परेड हुई और झंडे को सलामी दी गई। हंस समझा सचमुच उसी के लिए यह सब हो रहा हैं। अतः हंस ने गदगद होकर कहा- धन्य हो मित्र। आप तो एक शूरवीर राजा की भांति ही राज कर रहे हो।
उल्लू ने हंसराज पर रौब डाला- मैंने अपने सैनिकों को आदेश दिया हैं कि जब तक मेरे परम मित्र राजा हंसराज मेरे अतिथि हैं, तब तक इसी प्रकार रोज बिगुल बजे व सैनिकों की परेड निकले।
उल्लू को पता था कि सैनिकों का यह रोज का काम हैं। दैनिक नियम हैं। 
हंस को उल्लू ने फल, अखरोट व बनफ्शा के फूल खिलाए। उनको वह पहले ही जमा कर चुका था। भोजन का महत्व नहीं रह गया। 
सैनिकों की परेड का जादू अपना काम कर चुका था। हंसराज के दिल में उल्लू मित्र के लिए बहुत सम्मान पैदा हो चुका था।
उधर सैनिक टुकड़ी को वहां से कूच करने के आदेश मिल चुके थे। दूसरे दिन सैनिक अपना सामान समेटकर जाने लगे तो हंस ने कहा- मित्र, देखो आपके सैनिक आपकी आज्ञा लिए बिना कहीं जा रहे हैं।
उल्लू हड़बड़ा कर बोला- किसी ने उन्हें गलत आदेश दिया होगा। मैं अभी रोकता हूं उन्हें। ऐसा कह वह ‘हूं हूं’ करने लगा।
सैनिकों ने उल्लू का घुघुआना सुना व अपशकुन समझकर जाना स्थगित कर दिया। दूसरे दिन फिर वही हुआ। सैनिक जाने लगे तो उल्लू घुघुआया। सैनिकों के नायक ने क्रोधित होकर सैनिकों को मनहूस उल्लू को तीर मारने का आदेश दिया। एक सैनिक ने तीर छोड़ा। तीर उल्लू की बगल में बैठे हंस को लगा। वह तीर खाकर नीचे गिरा व फड़फड़ाकर मर गया। उल्लू उसकी लाश के पास शोकाकुल हो विलाप करने लगा- हाय, मैंने अपनी के चक्कर में अपना परम मित्र खो दिया। धिक्कार हैं मुझे।
उल्लू को आसपास की खबर से बेसुध होकर रोते देखकर एक सियार उस पर झपटा और उसका काम तमाम कर दिया।
सीख : झूठी शान बहुत महंगी पड़ती हैं। कभी भी झूठी शान के चक्कर में मत पड़ो।

           मजेदार बाल कहानी : दसवां प्रयास...



कनु बार-बार ध्यान हटाने की कोशिश कर रही थी। नजर दीवार से हटाकर टेबल पर रखी किताब पर एकाग्र करने का प्रयास कर रही थी किंतु न जाने कौन-सी अज्ञात शक्ति उसे दीवार पर देखने को विवश कर देती थी। वह बार-बार वहीं देखने लगती। दीवार पर था क्या? एक घिनौनी-सी छिपकली एक निरीह पतंगे के शिकार को तत्पर।


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पतंगा फुदर-फुदर उड़ता और दीवार पर बैठ जाता। घात लगाए बैठी छिपकली उस पर हमला करती किंतु इसके पहले कि वह पतंगे को मुंह में समेटे, वह झांसा देकर थोड़ी दूर जाकर उसी दीवार पर बैठ जाता। छिपकली अर्जुन के तीर की भांति फिर लपकती किंतु पतंगा बाजीगर-सा फिर झांसा दे जाता दे और उड़कर दीवार के दूसरे कोने में जा बैठता। 
'अब तो गया काम से' कनु चीखी। बिलकुल छिपकली के मुंह का ग्रास बनने ही वाला था वह वीर बहादुर पतंगा। पलभर को लगा कि वह गया काल के गाल में, परंतु बच गया साला। उसे गब्बरसिंह का 'शोले' वाला डायलॉग याद आ गया। पतंगा फिर घिस्सा दे गया। बेचारी छिपकली! चार प्रयास बिलकुल बेकार गए। सफलता से बहुत दूर, परंतु आशा अभी भी बाकी थी। कितने भागोगे बेटे, छिपकली सोच रही थी। 
वह भी तो प्रयास ही कर रही थी बरसों से, परंतु सफलता से कोसों दूर थी। जाया हर बार बाजी मार जाती थी। जाया और वह पहली कक्षा से ही साथ में पढ़ रही हैं। पक्की सहेलियां भी हैं। एक ही बेंच पर साथ में ही बैठती हैं और लंच भी साथ में ही लेती हैं व एक-दूसरे से शेयर करती हैं। किंतु प्रतिस्पर्धा की दीवार जो पहली कक्षा से खड़ी हुई, वह अब तक बरकरार है, यथावत है।
पढ़ाई में दोनों नेक-टू-नेक थीं, तो खेलकूद में भी पलड़ा बराबरी पर रहता। किंतु जब परीक्षा आती तो जाया बाजी मार ले जाती। जाया फर्स्ट आती तो कनु सेकंड। अंकों का अंतर बमुश्किल दो या तीन का होता।

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चौथी कक्षा तक यही क्रम चला। जाया फर्स्ट कनु सेकंड। कनु बहुत कोशिश करती, पढ़ाई में दिन-रात एक कर देती किंतु जाया ने तो जैसे फर्स्ट आने के लिए ही धरती पर जन्म लिया था। चौथी के बाद तो वह लगभग निराशा के आगोश में ही चली गई थी। 
पांचवीं की अंतिम परीक्षा में तो वह तीसरे क्रम पर खिसक गई थी। कहते हैं कि आशा से आसमान टंगा है, परंतु जब आशा ही टूट जाए तो आसमान भरभराकर गिरने लगता है। 
एक बार पतंगा फिर बैठा थोड़ी दूर उलटी दिशा में। छिपकली ने पलटी मारी और निशाना साधने लगी। अबकी बार गांडीव से निकला तीर मछली की आंख फोड़कर ही रहेगा। जैसे कोई योगी दीपक की लौ को देख रहा हो एकटक, छिपकली की भी वही दशा थी।
कनु फिर अतीत में डूब गई। छठी कक्षा में वह भी इसी तरह ध्यानस्थ हुई थी। केवल पढ़ाई और पढ़ाई पर, किंतु श्रम का फल व्यर्थ भी होता है, यह उसने उस वक्त जाना था। जाया से पार पाना संभव नहीं हो सका था। कनु सेकंड ही आ सकी थी। आठवीं कक्षा में वह तीसरे क्रम पर आ गई थी। दूसरे क्रम पर नर्गिस थी। वह तीसरे क्रम पर उफ! उसने जोर से टेबल पर मुक्का मार दिया था और दर्द से बिलबिला उठी थी।
इधर दीवार पर पतंगा छिपकली के नौ हमले बचा चुका था। ये पतंगे भी कितने बेवकूफ होते हैं, वह बुदबुदाई। जब मालूम है कि छिपकली बार-बार हमला कर रही है तो क्यों उसी दीवार मरने के लिए फुदक रहा है। कहीं और क्यों नहीं चला जाता? मैं जब डॉक्टर बनूंगी तो जरूर पतंगों के मस्तिष्क पर शोध करूंगी। शिकारी के सामने बार-बार जाना जिसके हाथ में बंदूक हो, मूर्खता है कि नहीं? वह सोचने लगी। वो मारा! आखिरकार इस बार पतंगाजी छिपकली के शिकार बन ही गए। दसवें प्रयास में आखिर सफलता हाथ लग ही गई।'

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वह बड़बड़ाई। तो क्या मैं टेंथ अटेंप्ट में सफल नहीं हो सकती। नौवीं कक्षा में उसके और जाया के बीच मात्र 1 अंक का फासला था, जाया को 480 और उसे 479 अंक मिले थे। छिपकली को टेंथ अटेंप्ट में सफलता मिल सकती है तो उसे? उसे क्यों नहीं?
उसे विवेकानंद याद आ गए- 'उठो और चल पड़ो और चलते रहो, जब तक कि मंजिल न मिल जाए।' और वह चल पड़ी थी। दसवीं कक्षा दसवां प्रयास! उसे प्रथम आना ही है। जाया को पीछे रहना ही होगा। अब तक आगे थी वह, पर अब नहीं, बिलकुल नहीं।
अब तो कनु का समय है। परिणाम आ रहा था कम्प्यूटर पर। टेंथ अटेंप्ट! दसवां प्रयास! छिपकली पतंगे को लील रही है, अर्जुन का तीर मछली की आंख में धंस गया है और कनु सचमुच जाया को पार कर चुकी थी। अपने विषय जीवशास्त्र में वह सर्वश्रेष्ठ घोषित हुई थी। शहर ही नहीं, सारे प्रांत में प्रथम थी वह।
प्रयास केवल प्रयास और विश्वास, वह जंग जीत गई थी। कनु घर आई और उस दीवार को जहां छिपकली ने पतंगे को लपका था, नमन किया और मुस्कराने लगी। 

                   कहानी : मेरी छात्रा

बात पुरानी हो चली है। उन्नीस सौ चौहत्तर ईसवीं में कठिघरा नाम के गांव में एक नई शिक्षिका आई। हमेशा वह समय से विद्यालय आती। विद्यालय में कई बच्चे स्कूल आना छोड़ रहे थे। सबकी सूची बनाकर वह बच्चों के घर संपर्क साधने लगी। वह चाहती थी कोई बच्चा शिक्षा से वंचित न हो। कुछ बच्चे मार की डर से विद्यालय छोड़ रहे थे।


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अध्यापकों का उस समय का प्रसिद्ध फॉर्मूला था 'या तो पढ़ाई छोड़ दोगे या पढ़ने लगोगे'।
नई शिक्षिका ने बच्चों को पढ़ाने का विधिवत प्रशिक्षण प्राप्त किया था। वह अन्य अध्यापिकाओं से भिन्न थी। धीरे-धीरे बच्चों के मन का भय निकलने लगा। बच्चे अपनी नई अध्यापिका की सब बात मानने लगे।
विद्यालय का वातावरण बहुत हद तक बदल चुका था। अन्य चार अध्यापिकाओं से बच्चे थोड़ा-बहुत डरते से थे। अध्यापिका सत्यभामा की मेहनत से पूरे गांव के लोग काफी प्रभावित थे।
सत्यभामा पहले इमिलिया और अढ़ौरी गांव में तैनात रही थी। वहां के गांव के लोग और बच्चे बार-बार उस सत्यभामा के पुनः तैनाती करवाने का संदेश भेजते। वहां के बच्चे अब भी उस महान शिक्षिका की याद में आंसू न रोक पाते।
कठिघरा गांव में लगभग सब लोग खेतिहर और मजदूर थे। स्कूल के पास में एक गहरा तालाब था। एक दिन इंटरवेल की घंटी लगी तो रोज की तरह आज भी बच्चे खेलने के लिए भाग खड़े हुए। सत्यभामा ने उच्च स्वर में आदेशित किया 'धीरे से निकलिए भागिए नहीं, नहीं तो चोट लग सकती है'।
भले ही सत्यभामा बच्चों को मारती-पीटती न हो, पर बच्चे फिर भी उसकी सारी बात मानते थे। सब बच्चे अनुशासन के साथ कक्षा से बाहर निकले। एक बच्चा फिर भी बहुत तेज भागा।

सत्यभामा ने उससे कहा- अभी आओ, तुमको ठीक करती हूं। इतना सुनते ही वह बच्चा भी अनुशासन में आ गया। यद्यपि वह जानता था कि वह किसी को पीटती नहीं। शेष अध्यापिकाएं अपने घर से लाए भोजन को करने में और बातचीत में मशगूल हो गईं।
सत्यभामा नए पाठ को कैसे पढ़ाया, इस तैयारी में जुट गई। कुछ देर बाद उसने परीक्षा की शेष कॉपियां जांचने का काम शुरू किया। कक्षा एक के दो बच्चे अचानक कक्षा में घुसे और आपस में बातें करने लगे।


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एक ने कहा- बहनजी से मत बताना। सत्यभामा अनजान बनकर उनकी बातें सुन रही थीं। दूसरी बोली- हां बोदिका (स्याही की दवात) में पानी डालने गई थी, डूब गई। यह सुनते ही सत्यभामा की सारी कॉपियां बिखरती चली गईं। पेन उंगलियों में दबा रह गया और वह भाग खड़ी हुई।
तालाब के पास जाकर देखा तो बच्ची के एक हाथ ऊपर पानी आ चुका था। जान की परवाह छोड़ वह तालाब में कूद गई। तालाब गहरा था। मिट्टी निकाले जाने की वजह से यह किनारों पर से ही गहरा होता चला गया था। सारे बच्चे अपनी प्रिय अध्यापिका के पीछे दौड़ पड़े। सभी अध्यापिकाओं ने देखा कि सत्यभामा ने बहुत बड़ा खतरा मोल ले लिया है।
गांव के लोग भी कोहराम सुन जमा होने लगे। सत्यभामा उस बच्ची को पकड़ने के लिए आगे बढ़ रही थी। वह बिलकुल असावधान थी और बेपरवाह भी। बच्ची गहरे तालाब के मध्य खिंची जा रही थी। प्राणरक्षा को धीरे-धीरे हाथ-पैर चला रही थी।
सत्यभामा की नाक तक पानी आ चुका था, लेकिन वह उस छात्रा को पकड़ने में सफल हो गई। अब वह उसे हाथों से ऊपर उठाकर किनारे की तरफ बढ़ रही थी। बिना भय के पानी में छलांग लगाने वाली वह अध्यापिका अब सतर्कता से बाहर आ रही थी।
गांव के लोग और सारा विद्यालय पसरे सन्नाटे के साथ भयभीत होकर तमाशा देख रहे थे। किनारे आकर उसने बच्ची को बाहर की तरफ फेंका और फिर बड़ी मुश्किल से खुद बाहर आई। उसके मुंह से कुछ उल्टी कराई। चारों तरफ उस अध्यापिका की बहादुरी के किस्से शुरू हो गए।
जिसकी बिटिया बची थी, वे ठाकुर थे। पूरी ठाकुर बिरादरी के लोग इकट्ठा थे।
शिक्षिका ने बेटी के सर पर बड़े प्यार से हाथ फेरते हुए पूछा- कहां गई थीं, वह बोली- मामा के घर।
शिक्षिका ने उसे प्यार से देखकर प्रसन्न भाव से कहा- हम्म, फिर उसे गले लगा लिया और पीठ थपथपाकर उत्साह दिया ताकि वह तनिक भय महसूस न करे।
वह एक अच्छे शिक्षक की भांति उसके मनोभावों को समझ रही थी। फिर अचानक उसकी निगाह छात्रा की मां पर गई। उसने उससे कहा- वो देखो मां रास्ता देख रही है। बच्ची की मां लगातार आंसू बहाए चली जा रही थी। गांव वालों ने उसे पुरस्कृत करने का फैसला किया।
जैसे ही प्रस्ताव अध्यापिका के पास आया, वह बोली- कर्तव्यों के निर्वहन का पुरस्कार नहीं लिया जाता। मेरी छात्रा को ईश्वर ने जीवनदान दिया, यह मेरे लिए एक बड़ा और अनमोल पुरस्कार है।
गांव का कोई व्यक्ति उस आदर्श अध्यापिका के शब्दों के आगे न बोल सका। उनके मन में 'अध्यापिका' शब्द के प्रति अगाध सम्मान पैदा हो चुका था।
'अध्यापिका' शब्द की सच्ची परिभाषा को सभी जीवित रूप में देख रहे थे।


               शिक्षाप्रद कहानी : विकलांग



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कक्षा में एक नया प्रवेश हुआ... पूर्णसिंह। उसकी विकृत चाल देखकर बच्चे हंसने लगे। किसी ने कहा लंगड़ूद्दीन, किसी ने तेमूरलंग तो किसी ने कह दिया- वाह नाम है पूर्णसिंह और है बेचारा अपूर्ण। मतलब यह कि अध्यापक के आने से पहले तक उपस्थित विद्यार्थियों ने उसको परेशान करने में किसी प्रकार की कमी नहीं बरती।
 
कक्षाध्यापक ने भी अपना कर्तव्य निभाते हुए उस विद्यार्थी से परिचय कराते हुए सहानुभूति ‍रखने की अपील कर दी। वे बोले- देखो बच्चों, पूरन हमारी कक्षा का नया विद्यार्थी है। वह आप लोगों की तरह सामान्य नहीं है, उसे चिढ़ाना मत बल्कि यथासंभव सहायता करना। 
 
हाय बेचारा- पास बैठे नटखट विराट ने व्यंग्य कर दिया।
 
पूरन को अच्छा नहीं लगा। वह तपाक से बोल पड़ा- न मैं बेचारा हूं और न किसी की दया के अधीन। मैं सिर्फ एक पैर से हूं, मानसिक रूप से विकलांग कदापि नहीं। विकलांगता मेरे काम में आड़े नहीं आती और अपने सारे काम मैं खुद ही कर सकता हूं।
 
कक्षाध्यापक ने संभलते हुए कहा- बुरा मत मानो बेटे, मैंने तो ऐसे ही कह दिया था। फिर शायद उसका दिल रखने के लिए यह कह दिया। वस्तुत: हम सब विकलांग हैं। आज की दुनिया विकलांग की दुनिया है। कक्षा के एक विद्यार्थी स्पर्श को यह आरोप पचा नहीं। उसने खड़े होते हुए अपनी आपत्ति दर्ज कराई। क्षमा कीजिए आचार्यजी! जब हमारे सभी अंग सुरक्षित हैं तो हम विकलांग कैसे हो गए?
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मैं समझाता हूं। इसे व्यापक अर्थ में लीजिए। हम हर काम में दूसरे का सहारा खोजते हैं। देखो बच्चों, जो दूसरों से दुर्व्यवहार करते हैं, वे अपाहिज हैं, क्योंकि वे सद्व्यवहार करने जैसे आवश्यक अंग से वंचित हैं। कक्षाध्यापक ने समझाने का प्रयास किया। विद्यार्थी उनकी बात से सहमत नहीं थे।
 
पार्थिव ने खड़े होकर अपना पक्ष रखा- मैं कभी किसी के साथ दुर्व्यवहार नहीं करता इसलिए कहलाने से बच गया।
 
पहले बात तो पूरी सुन लो, कहते हुए आचार्यजी ने पार्थिव को बैठा दिया, जो अकारण दूसरों को तंग करते हैं, दूसरे का अधिकार छीनते हैं वे भी वस्तुत: अपाहिज होते हैं।
 
मैं किसी को तंग नहीं करती, न किसी का अधिकार छीनती हूं इसलिए मैं विकलांग नहीं हुई- विदिता ने कहा।
 
अभी मेरी बात समाप्त नहीं हुई। वे लोग भी विकलांग हैं, जो मिथ्या भाषण करते हैं, झूठ बोलते हैं, जिनकी कथनी व करनी में अंतर होता है- कक्षाध्यापक ने आगे कहा। 
 
कम से कम मैं तो ऐसा नहीं, विशेष ने विरोध जताया।
 
यही नहीं, जो दूसरो को दुखी देखकर या दुख देकर प्रसन्नता का अनुभव करते हैं, वे भी विकलांग हुए- आचार्यजी ने अपना क्रम जारी रखा।
 
क्या आचार्यजी! आप एक के बाद एक सभी को लपेट रहे हैं- मुंह लगे विद्यार्थी सार्थक ने कहना चाहा।
 
उसे अनसुना करते आचार्यजी ने अपनी धुन में बोलते गए- विकलांग तो वे भी हैं, जो सामने होते हुए भी अन्याय को सहन करते हैं और मौन ओढ़ लेते हैं, क्योंकि वे मानवीय कर्तव्य भूल जाते हैं जिसमें कहा गया है कि अन्याय देखने वाला भी अपराधी होता है- आचार्यजी बोले।

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लेकिन आचार्यजी! यह..., मोहन ने कहना चाहा तो आचार्यजी ने टोक दिया- मैंने कहा न, इसे व्यापक अर्थ में लीजिए। हम भ्रष्टाचार को अपने सामने घटित होते हुए देखते हैं, मगर उसके विरुद्ध आवाज उठाने की हिम्मत नहीं दर्शाते... क्या यह हमारी मानसिक विकलांगता नहीं? आचार्यजी ने प्रश्न किया।
 
इसका मतलब बुरे गुण वाला भी है या जो अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता वह भी? विराट ने जानना चाहा।
 
मैंने कहा न, हम सब विकलांग हैं, क्योंकि किसी न किसी दुर्गुण से ग्रसित हैं। किसी सामान्य गुण की कमी या गुण होते हुए भी उचित अवसर पर इसका उपयोग नहीं करना भी विकलांगता है- आचार्यजी ने जवाब दिया।
 
आचार्यजी- सौम्य ने कुछ कहना चाहा तो उसे चुप कराते हुए आचार्यजी बोले- जिसका एकाध अंग खराब होता है वह शारीरिक रूप से विकलांग कहलाता है लेकिन वे जो सद्व्यवहार से दूर रहते हैं मानसिक रूप से विकलांग कहे जा सकते हैं- आचार्यजी ने समझाया।
 
आचार्यजी, आप बुरा नहीं मानें तो एक बात पूछूं? आपने जो व्याख्या की उसके अनुसार तो क्या आप भी विकलांग नहीं हुए? विराट ने पूछा।
 
एक पल के लिए आचार्यजी असहज दिखे फिर संभलकर बोले- हां, मैं समाज से अलग कैसे रह सकता हूं। कहने को मैं शिक्षक हूं, पर मेरी भी सीमाएं हैं। कहने का ‍तात्पर्य यह है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी कारण से अगर अपनी क्षमता या कर्तव्य का पालन नहीं कर पाता, वह विकलांग ही कहलाएगा।
 
आचार्यजी! पहले हम मानसिक रूप से विकलांग का अर्थ पागल समझते थे- विशेष बोला।
 
वह उसका संकुचित अर्थ है, व्यापक अर्थ में वे सभी विकलांग की श्रेणी में रखे जा सकते हैं, जो अपने सामान्य धर्म का पालन नहीं करते।
 
विषय की बोझिलता विद्यार्थियों के चेहरे से दिखाई देने लगी थी। तो आचार्यजी ने पूछ लिया- अब अगर कोई मेरी बात से सहमत नहीं हो तो हाथ खड़े करें।


              शिक्षाप्रद कहानी : एक चमत्कार


आज रोहन तीन दिन बाद विद्यालय आया था। आज फिर उसके गले में सुनहरे मो‍तियों वाली एक नई माला थी। माला के नि‍चले हिस्से में तांबे की पट्टी-सी लटक रही थी जिस पर आड़ी-तिरछी कई लकीरें खिंची हुई थीं। पिछले सप्ताह वह काले मोतियों वाली माला पहनकर आया था। विद्यालय से छुट्टी मिलते ही उसके मित्र श्रेयस ने पूछा- अरे गले में ये क्या पत्री लटकाए फिरते हो?
 
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फुसफुसाते हुए रोहन ने कहा- ये पत्री नहीं, है। पूरे 3 हजार रुपयों का लाया हूं। तीन दिन से मैं पहुंचे हुए बाबा की तलाश में था। आखिर वे मिल गए। उनसे लाया हूं।
 
क्या तुम भी? अंधविश्वास में पड़े रहते हो?
 
रोहन रातोरात करोड़पति बनना चाहता था। उसके पिता गरीब मजदूर थे। अमीर बनने के लिए वह साधुओं और बाबाओं के चक्कर में पड़ा रहता, जो उपाय वो बताया करते। उपाय भी अजीबोगरीब होते। पीले कपड़े में हरी दाल बांधकर घर के दरवाजे पर लटका दो। रोटी और चने चौराहे पर फेंक आओ। वह वैसा ही करता, लेकिन कोई न होता।
 
वह सोचता कहीं कमी रह गई होगी। एक न एक दिन ‍चमत्कार जरूर होगा और वह अमीर बन जाएगा।
 
एकाएक श्रेयस ने कहा- मेरे एक काकाजी हैं, वे करोड़पति बनने का उपाय जानते हैं। वे खुद भी बहुत अमीर हैं। उनकी कोठी देखेगा तो देखता ही रह जाएगा। 
 
तो तू वह उपाय करके करोड़पति क्यों नहीं बन जाता?
 
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श्रेयस ने हंसते हुए कहा- मैंने तो वह उपाय करना शुरू कर दिया है। 
 
लेकिन... 
 
मेरे काकाजी जो जानते हैं, वह आज तक असफल नहीं हुआ है। ऐसा चमत्कार जो हमेशा होते देखा है लोगों ने। शत-प्रतिशत आजमाया हुआ। तू कहे तो तुझे भी मिलवा दूं?
 
काकाजी उपाय बताने के कितने रुपए लेंगे?
 
बिलकुल मुफ्त...! अरे काका हैं वो मेरे...!
 
रोहन खुश होकर श्रेयस के साथ चल दिया। श्रेयस के काका की आलीशान कोठी देखकर रोहन हैरान रह गया। पता चला कि ये शहर के नामी-गिरामी अधिवक्ता (वकील) है। श्रेयस की बात सुनकर पहले तो काका हंसे, फिर बोले- बिलकुल ये चमत्कार हो सकता है बल्कि मैंने ही कर दिखाया है। मेरे पिता भी गरीब मजदूर थे और आज तुम देख ही रहे हो। चमत्कार करना तुम्हारे हाथ में है। बोलो करोगे?
 
हां, क्या करना होगा?
 
तो सुनो।
 
थोड़ा गंभीर होते हुए काकाजी ने कहा- उस चमत्कार का नाम है शिक्षा। शिक्षा का जादू कभी भी असफल नहीं हुआ है। मैं गरीब पिता का पुत्र था। मैंने अपनी पूरी मेहनत शिक्षा में लगा दी। पढ़-लिखकर अधिवक्ता बना। कानून की ऊंची-ऊंची डिग्रियां प्राप्त कीं। आज मैं एक-एक पेशी के 5-5 हजार रुपए लेता हूं। 
 
मेरा एक गरीब मित्र था, जो कि आज डॉक्टर बन गया। आज वह एक ऑपरेशन के लाख-लाख रुपए लेता है। जिसमें तुम्हारी रुचि हो। इंजीनियर बन सकते हो। कम्प्यूटर विशेषज्ञ बन सकते हो। तकनीकी शिक्षा प्राप्त कर सकते हो। शिक्षा इंसान को क्या से क्या बना देती है। एक सामान्य आदमी से खास आदमी बना सकती है। पैसा ही नहीं, इज्जत और प्रतिष्ठा दिला सकती है। 
 
पढ़-लिखकर अपने अंदर इतनी योग्यता पैदा करो, फिर तुम्हें वो सब मिल जाएगा, जो तुम चाहते हो। मन लगाकर पढ़ो। एक दिन चमत्कार अवश्य होगा 


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